झारखंड की धरती सदियों से संघर्ष, साहस और बलिदान की कहानी कहती रही है। बिरसा मुंडा का जन्मस्थान उलिहातू और उलगुलान आंदोलन का साक्षी डोंबारी बुरू आज भी राज्य की संस्कृति, आस्था और पहचान को जीवंत बनाए हुए हैं। हर वर्ष 15 नवंबर को हजारों लोग यहां पहुंचकर धरती आबा को नमन करते हैं और झारखंड स्थापना दिवस मनाते हैं।
उलगुलान की धरती डोंबारी बुरू: जहां अंग्रेजों ने बरसाई थीं गोलियां
खूंटी जिले के मुरहू प्रखंड में स्थित डोंबारी बुरू सिर्फ एक पहाड़ी नहीं, बल्कि झारखंड के स्वतंत्रता संघर्ष का महत्वपूर्ण प्रतीक है। 9 जनवरी 1899 को यहां अंग्रेजी सेना ने बिरसा मुंडा के अनुयायियों पर बेरहमी से हमला किया था।
मान्यता है कि उस दिन 400 से अधिक निर्दोष आदिवासी शहीद हुए थे, जिनमें महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग भी शामिल थे।
अंग्रेजों ने पहाड़ी को चारों तरफ से घेरकर अचानक गोलीबारी शुरू की। कई लोग मौके पर ही ढेर हो गए और जो बच पाए, वे जंगलों में भागकर अपनी जान बचा सके। अंग्रेज सैनिकों ने शवों को दफनाने की भी अनुमति नहीं दी। यह घटना झारखंड के इतिहास में ‘जलियांवाला बाग कांड’ की तरह दर्ज है।
छह शहीदों की हुई पहचान, बाकी आज भी इतिहास के पन्नों में अनाम
इतिहासकार बताते हैं कि इस नरसंहार में शहीद हुए सैकड़ों लोगों में से सिर्फ छह के नाम ही पता चल पाए:
- हाथीराम मुंडा
- हाड़ी मुंडा
- सिंगराय मुंडा
- बकन मुंडा की पत्नी
- मझिया मुंडा की पत्नी
- डुंगडुंग मुंडा की पत्नी
बाकी सभी शहीद आज भी अनाम हैं, लेकिन उनका बलिदान झारखंड की मिट्टी में अमर है।
शहादत दिवस पर लगता है मेला, गूंज उठता है उलगुलान
हर वर्ष 9 जनवरी को डोंबारी बुरू में शहादत मेला आयोजित किया जाता है।
इस दौरान:
- पारंपरिक नृत्य
- लोकगीत
- अखरा प्रतियोगिताएं
- सांस्कृतिक कार्यक्रम
आयोजित होते हैं। आदिवासी समुदाय अपने पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ यहां पहुंचते हैं और उलगुलान की गूंज एक बार फिर जीवित हो उठती है।
110 फीट ऊंचा स्मारक स्तंभ देता है शहीदों को सम्मान
डोंबारी बुरू के शिखर पर बना 110 फीट ऊंचा स्मारक स्तंभ शहीदों की अमर गाथा को दर्शाता है।
यह स्तंभ नई पीढ़ी को याद दिलाता है कि स्वतंत्रता किसी उपहार से नहीं, बल्कि संघर्ष और बलिदान से मिली है।
यहां बने शिलालेख बिरसा मुंडा और उनके साथियों के पराक्रम की कहानी कहते हैं।
बदली डोंबारी बुरू की तस्वीर, विकसित हो रहा हेरिटेज स्थल
पिछले कुछ वर्षों में इस ऐतिहासिक स्थल का विस्तृत विकास किया गया है:
- पहाड़ी पर नई चौड़ी सीढ़ियां
- स्मारक परिसर का सौंदर्यीकरण
- बैठने की सुविधाएं
- सड़क निर्माण
- विश्राम स्थल
- बिरसा मुंडा की प्रतिमा का नवीनीकरण
अब श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए यहां पहुंचना पहले से अधिक आसान हो गया है।
राज्य पर्यटन विभाग इसे हेरिटेज टूरिज्म सर्किट में शामिल करने की तैयारी कर रहा है।
उलिहातू: धरती आबा का जन्मस्थान, आस्था का केंद्र
बिरसा मुंडा का जन्मस्थान उलिहातू आज झारखंड से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक आस्था और प्रेरणा का केंद्र बन चुका है।
हर वर्ष हजारों लोग यहां पहुंचकर धरती आबा को श्रद्धांजलि देते हैं।
यह स्थान बिरसा के जीवन, उनकी विचारधारा और उनकी जनक्रांति की याद दिलाता है।
डोंबारी बुरू: झारखंड की अस्मिता, संघर्ष और स्वाभिमान का प्रतीक
आज डोंबारी बुरू सिर्फ एक ऐतिहासिक पहाड़ी नहीं, बल्कि झारखंड की पहचान है।
यह वही जगह है जहां से बिरसा मुंडा ने “अबुआ दिसुम, अबुआ राज” (अपना देश, अपना राज) का संदेश दिया था।
यह स्थल हमें याद दिलाता है कि
“गोलियों से शरीर मारे जा सकते हैं, विचार नहीं।”
झारखंड की आत्मा आज भी डोंबारी बुरू की हवाओं में गूंजती है, और यह स्थान हमेशा संघर्ष, साहस और बलिदान का प्रतीक बना रहेगा।

